अनु साहनी (सागर किनारे प्रतियोगिता | सम्मान पत्र)
लहरों का मुकद्दर है , सागर में जा समाना, फिर साहिल से टकराकर, पड़ता है लौट जाना। ठहरा नहीं कभी भी, चाहे कैसी भी हो
लहरों का मुकद्दर है , सागर में जा समाना, फिर साहिल से टकराकर, पड़ता है लौट जाना। ठहरा नहीं कभी भी, चाहे कैसी भी हो
आज ढूँढती हूं वो गुज़रे लम्हें तेरे मेरे, लहरों के उस पार, सागर किनारे। वो पीले फूलों की चादर पर साथ बैठना, मेरे समय पर
गुज़र रहा है जीवन जैसे, किसी सुंदर सागर किनारे । बने पड़े हैं जहां अतीत के, निशान अनगिनत कई सारे। सामने भावी संभावनाओं की, अथाह
सागर को क्या पता,किनारे की दर्द! टूटते हुए लहरों के कद, सरहद! कितना दर्द दफन हुए हैं किनारे! टुट कर लहरें जो बिखर जाते सारे।
सागर है कितना गहरा… हमारे मन जैसा ही कुछ-२ थाह नहीं आसान जिसकी मन में चलती रहती है धुक-२ जो भी गहरे पानी पैठता उत्ताल
क्या मैं हूँ क्या तुम हो और क्या ये सागर का किनारा है नदियां और सागर की भांति जब तक अधूरा प्यार हमारा है पास
इस बरसते हुए मौसम में सागर की लहरों के उठते उफान में जैसे हर लफ्ज़ मचल उठा हो तुम्हे अपने करीब पाकर लहरों के किनारे
सदियां गुजारी है, यादों में तुम्हारे, ये तेरी तड़प है, सीने मै हमारे, फिर लोटा हूं मिलने, सागर के किनारे -२ वो आना वो जाना,
मेरा मन एक अथाह सागर लहरों को खिलाता हिचकोले सारा दुख और दर्द समेटे कहता चुप रह बिन मुँह खोले मेरा मन एक अथाह सागर
सागर किनारे वो लहरों की फुफकार वो लहरों की गर्जन करती है रेतों को तर्पण वो सागर की गहराई वो आसमान की ऊंचाई उस बीच
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