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सुमित्रानंदन पंत के काव्य संग्रह “चिदंबरा” पुस्तक की समीक्षा

सुमित्रानंदन पंत हिंदी साहित्य में छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक हैं। निसर्ग के उपादानों का प्रतीक वबिम्ब के रूप में प्रयोग, उनके काव्य की विशेषता रही है।

उनके जीवनकाल में उनकी २८ पुस्तकें प्रकाशित हुईं, जिनमें कविताएं, पद्य-नाटक और निबंध शामिल हैं।

विचारक, दार्शनिक और मानवतावादी रचनाकार सुमित्रानंदन पंत की काव्यचेतना का प्रतिबिम्बन है, उनका काव्य संकलन ‘चिदंबरा’. 

इसमें कवि के १९३७ से १९५७ तक की बीस वर्षों की विकास-यात्रा की झलक मिलती है। स्वयं पंत ने स्वीकार किया है कि ‘चिदंबरा’ में उनकी भौतिक, मानसिक, आध्यात्मिक संचरणों से प्रेरित आन्तरिक लयबद्धता व्याप्त है।

“चिदंबरा” काव्यसंग्रह, सुमित्रानन्दन पंत के श्रेष्ठ कविता संग्रहों में गिना जाता है। ‘चिदंबरा’ के लिए पंतजी को वर्ष १९६१ में ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया था। इस काव्यसंग्रह का प्रकाशन राजकमल प्रकाशन द्वारा किया गया था।

चिदंबरा की पृथु-आकृति में भौतिक, सामाजिक, मानसिक, आध्यात्मिक संचरणों से प्रेरित कृतियों को एक स्थान पर एकत्रित देखकर पाठकों को उनके भीतर व्याप्त एकता के सूत्रों को समझने में अधिक सहायताई है। इसमें कवि ने अपनी सीमाओं के भीतर, अपने युग के बहिरंतर के जीवन तथा चैतन्य को, नवीन मानवता की कल्पना से मण्डित कर, वाणी देने का प्रयत्न किया है। 

सुमित्रानंदन पंत जी का बचपन उत्तराखंड की प्राकृतिक सुंदरता की गोद में बीता है, तो निश्चित है कि उसका असर उनके काव्य पर भी पड़ना ही था। इस कारण उनकी रचनाओं में प्राकृतिक सौंदर्य का अनुपम वर्णन देखने को मिलता है और यही कारण है कि उन्हें “प्रकृति का सुकुमार कवि” भी कहा जाता है।

उन्होंने प्रकृति के लगभग सभी स्वरूपों का वर्णन अपने काव्यों में किया है , फिर चाहे प्रकृति का रौद्र रूप हो या भावनात्मक स्वरुप , आवलंबन रूप हो या अलंकारिक रूप और इन सब के साथ प्रकृति के रहस्यात्मक रूप और जीवन का दर्शन भी उनके काव्यों में देखने को मिल जाता है। प्रकृति में रहस्य भावना को आरोपण और प्रकृति के माध्यम से गंभीर दार्शनिक विचारों की अभिव्यक्ति, छायावाद की इस मुख्य विशेषता के दर्शन, पंत जी के काव्यों हमेशा दिखते थे। 

प्रकृति के प्रति उनका अनुराग इतना था के वे उसके सौंदर्य के सम्मुख नारी के रूप सौंदर्य को उतना महत्व देते नहीं दिखाई देते। अपनी रचना में वे कहते हैं..

छोड़ द्रुमों की मृदु छाया

तोड़ प्रकृति से भी माया

बाले तेरे बाल – जाल में

उलझा दूं में कैसे लोचन ?

यहाँ वो नायिका से कहते हैं कि ” मैं वृक्षों की इस मृदुल छाया और प्रकृति के मोह को छोड़कर तेरे केशों के जाल में अपनी आँखें कैसे उलझा लूं।”

 

प्राकृतिक सौंदर्य और प्रतीकों के माध्यम से जीवन की महत्ता को अभिव्यक्ति देना पंत जी के काव्यों की विशिष्टता थी।

कोमल हृदय के यह कवि , बालसुलभ नादानियों को भी अपनी रचनाओं में इस तरह पिरोते है कि उनके कारण हम सब पुनः अपने बचपन की शरारतो में खो जाते है।

इसके अलावा अन्य विषयों पर जैसे की आध्यात्म और देशप्रेम पर भी पंत जी की कलम उतनी ही प्रवाहमान है। 

ऐसे महान कवि की ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित काव्यसंग्रह “चिदंबरा” हर कविता प्रेमी को आकर्षित करती है।

©️✍️ शीतल प्रधान देशपांडे 

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