रूह चादरें बदलती रही , जिस्म साँसो में बंध गया,
ज़िंदगी ख़्वाहिशों की चाह में , कब गुज़र गया ,
कब बीज डाला था , कब व्रक्ष बन गया ,
बिन फल आए हुए ही, ना जाने कब कट गया ,
साँसो की ये माला ,कब ज़िम्मेदारीयो में गुथ गयी ,
साँसो के रुकते ही , माटी में मिल गयी ,
घट जाए जो नित्य प्रति , ज़िंदगी कहलाएगी ,
अलविदा कह कर , किस रूप में मिल पायेंगी ,
मूक माटी की ये काया , माटी में मिल जायेंगी ,
अजर – अमर रूह तो पुनः नयी काया पायेगी
पुनः नयी काया पाएगी ……….
चलता रहेगा ये कारवाँ अनवरत चिरकाल ,
बस चेहरे बदलते रहेंगे , आएगा जब भी काल
आएगा जब भी काल ………..
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