हे भगवान !
कैसा ये रंगमंच बिछाया है?
सूर्य आज विडम्बना बनकर छाया है।
ताकत, ऊष्मा, रोशनी, ऊर्जा देने वाला,
वनमण्डल पर प्रकोप सा नज़र आया है।
कोलाहल मचा है धरती पर,
अग्नि ने वसुंधरा पर क्रोध बरसाया है।
चूल्हा, लोहा, सोनेचांदी को सजाने वाले ने,
उफ्फ! आज प्रकृति को खाक बनाया है।
तड़क रही है लकड़ियां,
ज्वलित हो रहा ज़र्रा ज़र्रा।
चीख पुकार भी ना निकल पाए जिसकी,
उसकी उड़ रही है धज्जियां।
कुछ ऐसी आग लगी है,
इंसान के भी दिली समुंदर में,
दौलत, हवस और अहंकार की खातिर,
प्रेम, अपनापन और भाईचारा को तब्दील कर दिया है खौफनाक खंडर में।
कुछ तो अपनी मेहर दिखा दे, मेरे रब्बा!
एक हो जाए हर अंतर्मन तेरी रहमत में।
खुशनुमा रहे संसार सारा
मगन ब्रह्माण्ड में सजाई तेरी सलतनत में ।
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