कानों में मिश्री सी घोले,
काली ‘कोकिला’ मीठा बोले।
मीठी तान सुनाती है
गुण अमूल्य समझाती है।
पतझड़ हो या रहे बसंत,
सुर में मगन हो जाती है।
दिन देखें न रात कभी,
बड़ी लगन से गाती है।
कुहू -कुहू की नकल करो
यदि फिर से वही दोहराती है।
नीरस पतझड़ के मौसम में,
राग-रंग ले आती है।
लगता जैसे मधुर कंठ से
जीवन राग सिखाती है।
निमिषा सिंघल
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1 Comments on “निमिषा सिंघल। (विधा : कविता) (कोकिला | सम्मान पत्र)”
Thank you so much Sapna ji 💐💐💐💐💐💐