दादी नानी की कहानियाँ , कुछ लम्बी-कुछ छोटी ,
कुछ मज़ेदार -कुछ डरावनी और उनकी ही ज़ुबानी;
मन के एक कोने में सजी संवरी बैठी हैं,
आज भी शिक्षा देती हैं ,और हिम्मत हमें दिलाती हैं।
वो शहर से दूर मेरी नानी के गाँव में ,
छोटे छोटे हम सब और एक ही छाँव में ;
मामा के साथ का वो गर्मियों का कारवाँ ,
ख़ुशी से गुनगुनाना और फूला ना समाना ।
ऊँचे थे पहाड़ , और लम्बे थे रास्ते ,
कभी ठंडा शर्बत पीते या मटका क़ुल्फ़ी खाते ;
कभी रास्ते के हिरन और बंदर को देखते ,
कभी पुल के नीचे बहती नदी में सिक्के डालते जाते ।
बड़ा सा नानी का घर , तब और बड़ा लगता ,
दरवाज़े पर दीपक रख , और हाथ में आरती लेकर ;
नानी आती और हमारी सारी बलाएँ भगाती,
माँ से गले मिल कर आंखो के कोर भिगोतीं ।
पूरे घर में दौड़ते हम और लुका छिपी करते ,
गावों की दोपहर को बातों और किताबों से बिताते ;
शाम को खेतों की लम्बी डगर पर दौड़ लगाते ,
और माली काका से आम के पेड़ पर झूले लगवाते ।
एक फ़रमाइश पर दौड़ के आतीं दादी -नानी ,
कभी लगता ये दादी-नानी हैं या जादूगरनी,
अब वो जादूगरनी दादी-नानी नहीं रहीं,
पर उनकी कहानियाँ आज भी जीना सिखा रहीं ।
मौलिक रचना
सर्वाधिकार सुरक्षित
डॉ आराधना सिंह बुंदेला
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