आज पुकारे ये धरती माँ
हे मानुष ! तू क्यों चुप खड़ा
जल रही है जग जननी
तू क्यूँ निज स्वार्थ पर अड़ा..
कभी पेड़ो की शीतल छाँव
तो कभी सरोवर का शीतल जल
चलती शीत लहर के संग
सुहानी धूप में गुजरे वो पल
सब भूल गया तू…..
विकाशीलता के नाम पर
विनाशिता को जन्म दिया है
कर कटाई जंगलों की तूने
प्रलय को निमंत्रण दिया हैं
दूषित जल प्रदूषित अम्बर सारा
कही कारखानो की भरमार तो
तो कही रसायनों का भण्डार
औधोगिकता के नाम पर
धधक रही है हमारी वसुंधरा
ऐ मानव ! अभी वक्त है
सम्भल जा तू
ऐसे कटे जंगल तो तू न
बच पायेगा
प्रकृति के इस प्रकोप को
कोईं नही रोक पायेगा
तेरी ही लगाई अग्नि में
तू ही भश्म हो जाएगा….
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