माँ की वसीयत
खोलो जब मेरी वसीयत ह्रदय की आँ
तुम ही रहे हो मेरे जीवन के
वसीयत में रखे पैसे नहीं हैं सिर्फ़ काग़ज़ के टुकड़े,
हैं ये तिनके जिन्हें जोड़ बनाए
जब देखो वसीयत में मिला घर आली
रख लेना माँ का मान ।
सत्य- प्रेम -आदर का रखना उसमें
है बेटा तुमसे बस इतनी सी आ
न गिनना कभी भी घर की मंज़िलें ,
गिन लेना उनमें लगे थे जो
घर की नींव में भरा है तु
लेना भरपूर ,जब भी बेटा तुम क
है वास्तविक वसीयत में हीरे जवा
पर याद रखना तुम ही हो हमारा ख
नहीं रही चाहत कभी भी मिले मुझे
तेरे हाथों के हार ने बनाया
बड़े से घर में हमारे लिए छोटा
जहाँ हर दिन मेरे संग हँसना जा
बनाई है मैंने बंगले की खिड़कि
ताकि प्रकृति व प्रभु से तुम्हा
खिंची है द्वार पर संस्कार रूपी
चलेगा ग़र तू संभल न खाएगा कभी
अंत में लिखती है तेरी माँ बे
प्यार को हमारे समझना सबसे बड़ी
इंदु नांदल
जर्मनी
स्वरचित
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