पलकों पर सजा कर रंगीन स्वपन
सहमी सी चली वो पिया के आँगन
कल तक थी वो अल्हड बहती नदी
आज सागर से मिलने वो चली
नए रास्ते ,नए पड़ाव ,नए आयाम ,नए से थे मोड़
शांत धारा बन गयी.,अल्हड़पन अब दिया उसने छोड़
सपनो को रेत की तरह सीने में दफनाए
सींचती रही परिवारजनो के सपने ,अपने दिये कहीं छुपाये
कभी जो हिलकोरे खाते उसके दबे स्वपन
भीगी पलकों के पीछे तोड़ देते वो दम
हरे हो जाते उसके सूखे ज़ख्म
ठूंठ की तरह भीगी पलकों पर चुभते हरदम
तन्हाई की बूढ़ी आंखों ने टटोला जो उस का अंतर्मन
धुंधले धुंधले से दिखाई पड़े उसके दबे स्वपन
तोड़ कर अब भीगी पलकों का बाँध
अश्रू बन बह चले अब उसके सारे अधूरे खवाब
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